Aisa Kyu Hota Hai Facts in Hindi दोस्तों इस पोस्ट में हम प्रकृति और विज्ञान की Top 20 Amazing Science Facts In Hindi जानने वाले है जो हमेशा आपके सामने होता रहता है और आपके मन में उस चीज को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है की आखिर ऐसा क्यों होता है ? तो आप पोस्ट को अंत तक जरूर पढ़िएगा |
Top 20 Aisa Kyu Hota Hai Facts in Hindi
1. दियासलाई कैसे बनती है ?
दियासलाई मोम लगे कागज या दफ्ती से बनाई जाती है। इनके एक सिरे पर कुछ जलने वाले पदार्थों का मिश्रण लगा होता है। दियासलाई का निर्माण जॉन वॉल्कर ने 1827 में किया था। इसे लकड़ी के टुकड़े पर गोंद, स्टार्च, एंटीमनी सल्फाइड, पोटैशियम क्लोरेट लगाकर बनाया गया था। पर यह सुरक्षित नहीं थी।
सुरक्षित दियासलाई 1844 में स्वीडन के ई। पोश्च द्वारा बनाई गई थी। आज दियासलाई मुख्य रूप से दो तरह की होती है। पहले तरह की माचिस को घर्षण माचिस कहते हैं। इसे किसी खुरदरी सतह पर रगड़कर आग पैदा की जा सकती है।
सबसे पहले लकड़ी की तीली के एक-चौथाई भाग को पिघले हुए मोम या गंधक में डुबोया जाता है। फिर उस पर फास्फोरस ट्राई सल्फाइड का मिश्रण लगाया जाता है। उसके ऊपर एंटीमनी ट्राई सल्फाइड और पोटेशियम क्लोरेट का मिश्रण लगाया जाता है।
घर्षण हो, इसके लिए इस मिश्रण में कांच का चूरा या बालू मिला दिया जाता है। जब तक सफेद हिस्सा नहीं रगड़ा जाए या आग न पकड़े, तब नीला हिस्सा नहीं जलता। इसी पदार्थ द्वारा तीली के दूसरे हिस्सों में भी आग पहुंचती है।
इस प्रक्रिया द्वारा बनाई गईं तीलियां बहुत जल्दी आग पकड़ती हैं। सुरक्षित दियासलाई दूसरी किस्म की दियासलाई है।
यह दियासलाई की डिब्बी पर लगे रसायन की रगड़ खाकर ही जलती है। सुरक्षित दियासलाई का निर्माण ऊपर दी गई प्रक्रिया के अनुसार ही होता है।
बस इसमें फास्फोरस ट्राई सल्फाइड का प्रयोग नहीं किया जाता है। उसकी जगह पर इसमें लगे लाल फास्फोरस लगाया जाता है। इसमें खासियत यह होती है कि बिना रगड़े दियासलाई में आग पैदा नहीं होती। हमारे घरों में इन्हीं दियासलाइयों का उपयोग होता है।
2. AC और DC क्या है ?
सबसे पहले आपको यह जानना जरूरी है कि बिजली के कितने प्रकार होते है। @ पहला डी.सी। [D.C.] वोल्ट @ दूसरा ए.सी। [A.C.] वोल्ट अब डी.सी.[D.C.] और ए.सी. [A.C.] मे क्या अंतर होता है। 1॰ डीसी:- डायरेक्ट करंट [Direct current] जो साधारणतया बैटरी जैसे:- पेंसिल सेल जिससे टॉर्च को करंट ,मोबाइल बैटरी जिससे मोबाइल को करंट इन्वर्टर बैटरी जिससे घर की लाइट को करंट इस प्रकार प्राप्त बिजली को किसी विशेष उपकरण मे स्टोर,एकत्रित करके उपयोग मे लाते है
इस प्रकार के अनेकों उपकरण है जिसे बिजली के रूप मे उपयोग मे लाया जाता है,उसे डीसी:- डायरेक्ट करंट [Direct current] कहते है। 2॰ ए.सी. [A.C] वोल्ट [Alternate current] यह करंट अपने नाम के अनुसार बदलता रहता है
इसके बदलने की गती इतनी तेज होती है की एक करंट लगने पर आदमी को कई गुना दूर तक फेक देती है या उसे अपने से चिपका देती है जब तक उस व्यक्ति का खून पूरी तरह से सुख कर काला न हो जाए या जब तक उसकी म्रत्यु न हो जाए। साधारण तहा इसे घरो मे,फ़ैक्टरियों मे ,बड़ी कंपनियो मे यहा तक की रेल गाड़ी को चलाने के लिए भी बिजली उपयोग मे लाई जाती है।
इस करंट को प्राप्त करने के लिए विशेष प्रकार के तार यानी की वायर का इस्तेमाल होता है।
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Top 20 Aisa Kyu Hota Hai Facts in Hindi
3. बिजली का आविष्कार कैसे हुआ?
बिजली (Electric) शव्द की उत्पति ग्रीक भाषा के ‘ इलेक्ट्रान ’ शव्द से हुई है l ईसा से 600 वर्ष पूर्व ग्रीक के लोगों को पता था कि अम्बर (Amber) को कपड़े से रगड़ने पर उसमें कोई ऐसी शक्ति पैदा हो जाती है, जिसके कारण वह कागज के छोटे-छोटे टुकड़ों को आकर्षित करने लगता है l
वास्तव में बिजली का आविष्कार सन् 1800 में अलेस्सांद्रो वोल्टा (Alessandro Volta) ने किया l वही सबसे पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने पहली विधुत सेल बनाई, जिससे विद्युत धारा प्राप्त की जा सकती थी l
विधुत सेल के आविष्कार के कुछ ही दिनों में लोगों को यह पता लग गया कि बिधुत धारा से ऊष्मा, प्रकाश, रासायनिक कियाएं और चुम्बकीय प्रभाव पैदा किए जा सकते हैं l वोल्टा विधुत सेल में हल्के गंधक के अम्ल में एक जस्ते और तांबे की छड़ डुबोई जाती थी l
इन छोड़ों पर लगे तारों को जोड़ने पर बिजली पैदा होती थी l इस सेल में बाद में बहुत से सुधार हुए और अनेकों प्रकार के बिधुत सेलों का निर्माण हुआ l विधुत पैदा करने की दिशा में सबसे क्रन्तिकारी कार्य 1831 में माइकल फैराडे (Michael Faraday) ने किया l
उन्होंने सबसे पहले सारे संसार को यह दिखाया कि यदि तांबे के तार से बनी कुंडली (Coil) में एक चुम्बक को आगे-पीछे किया जाए, तो बिजली पैदा हो जाती है l
फैराडे के इसी सिद्धांत को प्रयोग में लाकर विद्युत पैदा करने वाले जेनरेटरों (Generators) का विकास हुआ l सबसे पहला सफल विद्युत डायनेमो (Dynamo) या जनरेटर जर्मनी में सन 1867 में बनाया गया l
उसके बाद विधुत मोटरों और ट्रांस्फोर्मेरों (Transformers) का विकास हुआ l 19 वीं शताब्दी के अंत तक दुनिया के कुछ हिस्सों में बिजली का उत्पादन होने लगा था l 1858 में अमेरिका में गिरते हुए पानी की मदद से टरबाइन (Turbine) चलाकर विद्युत पैदा की गई l इसके पश्चात दुनिया में बहुत से जल विद्युत उत्पादन केन्द्र (Hydel Power Station) और ताप विद्युत उत्पादन केंद्रों (Thermal Power Station) का विकास हो गया l 20 वीं सदी में परमाणु ऊर्जा के विकास के बाद परमाणु ऊर्जा से भी बिजली बनाई जाने लगी |
आज के वैज्ञानिक परमाणु ऊर्जा और सौर ऊर्जा को प्रयोग में लाकर विद्युत उत्पादन के नये – नये तरीकों की खोज करने में लगे हुए हैं |
4. बिजली कैसे बनती है?
बिजली बनाने के पीछे जो नियम है वह है चुम्बक के चलने पर बिजली का पैदा होना। विज्ञान का यह सिद्धांत है की जब एक चुम्बक को तार से लपेट दिया जाये और चुम्बक घूमने लगे तो तार में बिजली बहने लगती है या फिर एक तार को किसी छड़ पर लपेट दिया जाए और इसे किसी चुम्बक के बीच में रख कर घुमाया जाए तो इन तारों में बिजली बहने लगेगी।
1431 में माइकल फेरेडे नाम के ब्रिटिश वैज्ञानिक ने यह सिद्धांत खोजा था। उन्होंने ने पाया की एक तांबे के तार को किसी चुम्बक के पास घुमाएं तो उस तार में बिजली बहने लगती है। यानी अगर एक चुंबक और एक तार (जो बिजली चालक हैं) के बीच अगर गति है तब तार में बिजली पैदा होती है। तार को आप एक बल्ब से जोड़ दें तब यह बल्ब जलने लगेगा।
यह आप अपने घर में भी आसानी से कर सकते हैं। घूमते हुए तार की यांत्रिक ऊर्जा, विद्युत ऊर्जा में बदल जाती है। इसी नियम को आधार मानकर चलते हैं सारे बिजली घर।
अब हमें यह पता चल गया की बिजली पैदा कैसे हो सकती है। तो हम क्रम से सोचें कि कैसे हम एक बिजली घर बना सकते हैं और हमें किन चीज़ों की ज़रूरत पड़ेगी। ऊपर वाले नियम को लागू करने के लिए हमें चाहिए बहुत बड़े चुम्बक, तार जिनमें बिजली का प्रवाह हो सकता है, एक बहुत बड़ी छड़ जिस पर यह तार बंधा हो, और इस को छड़ को चलाने के लिए कोई मशीन।
घर में आपने किसी बर्तन को कभी ढक कर पानी उबाला है। अगर किया है तो देखा होगा की पानी उबलने पर ढक्कन या तो गिर जाता है या उछलने लगता है। इसके मतलब भाप में ऊर्जा है जो हम किसी मशीन को चलाने में इस्तेमाल कर सकते हैं।
याद है जेम्स वाट ने स्टीम इंजन की शुरुआत इसी तरह उबलते पानी को देखकर की थी। तो फिर क्यों न हम इसी भाप से अपनी छड़ को चलाएं? पर भाप बनाने के लिए चाहिए बहुत सा पानी और बहुत सा ईंधन। हम अपना बिजली घर ऐसी जगह लगायेंगे जहां पानी का स्रोत हो जैसे कोई बहुत बड़ी झील या नदी |
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5. एस्बेस्टस क्या है?
एस्बेस्टस एक ऐसा शब्द है जिसका ज़िक्र भले ही आम न हो लेकिन लोहा, प्लास्टिक, कांच जैसे बहुपयोगी सामग्री बनाने में इसका प्रयोग होता है। दरअसल एस्बेस्टस ग्रीक भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है “अशमनीय” यह एक ऐसा विचित्र पदार्थ होता है जो आग नहीं पकड़ता।
यह पदार्थ चट्टानों से मिलता है और साथ ही इसकी खानें भी होती हैं। खानों में इसका निर्माण “ओलिविन” नामक पदार्थ के विघटन से होता है।
ओलिविन वास्तव में कैल्शियम और मैग्नीशियम के सिलिकेट होते हैं। खानों में होने वाली रासायनिक क्रिया के फलस्वरूप ये पदार्थ रेशों में बदल जाता है। रुई की तरह इसके धागे काटे जा सकते हैं। एस्बेस्टस को खानों से निकाल कर सुखा लिया जाता है और मशीनों की सहायता से इसके रेशे को अलग करके रस्सी के धागों के रूप में काट लिया जाता है।
जिससे कपडा या चादर बना ली जाती है। एस्बेस्टस का प्रयोग करके आग में ना जलने वाले कपड़े बनाये जाते हैं। जिनका इस्तेमाल आग कि भट्टियों के आसपास काम करने वाले लोग करते हैं। साथ ही एस्बेस्टस के ठोस रूप का प्रयोग भट्टियों कि ऊष्मा को बेकार न जाने देने के लिए भी किया जाता है।
भट्टियों में इसकी चादर लगाई जाती हैं। ठन्डे प्रदेशों में पानी के पाइपों के ऊपर एस्बेस्टस की परत चढ़ाई जाती है जिससे उसमें पानी नहीं जमता। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि यह ऊष्मा और विद्युत दोनों का कुचालक होता है। इसका 75% उत्पादन कनाडा में होता है।
6. बुखार क्यों आता है?
आमतौर पर हमारे शरीर का तापमान 98-99° फारेनहाईट के बीच रहता है लेकिन कभी हमारी लापरवाही या मौसमी असंतुलन से या जीवाणुओं के हमले के कारण शरीर कि क्रियाओं के बीच संतुलन बिगड़ जाता है
जिससे हमारे शरीर को अधिक एंजाइम, हार्मोन और अधिक रक्त कणिकाएं पैदा करनी पड़ती हैं। ये सब बीमारियों से मुकाबला शुरू कर देते हैं। फल्स्वरीओ रक्त का शरीर में प्रवाह बढ़ जाता है। सांस तेज़ चलने लगती है और इन क्रियाओं के करम शरीर का तापक्रम बढ़ जाता है। इस बढे हुए तापक्रम को ही बुखार कहा जाता है।
7. जीवित प्राणियों पर ही क्यों पनपते है वायरस?
वायरस ऐसे सूक्ष्म जीव होते हैं जो हमें आँखों से दिखाई नहीं देते हैं। ये अपने आकार-प्रकार से बहुत सरल होते हैं और इनकी सरलता का अंदाजा इनकी बनावट से लगाया जा सकता है। वायरस पर प्रोटीन की एक परत होती है
जिन पर डी एन ए या आर एन ए बहुत कम मात्रा में होते हैं। इस प्रकार इसमें जीवन की विविध क्रियाओं के करने हेतु कोई भी व्यवस्था नहीं होती।
वायरस केवल पोषक की कोशिकाओं पर अधिकार जमा कर उनकी क्रियाओं का अपने लाभ के लिए प्रयोग करते हैं और जब पोषक की इनके शोषण से मृत्यु हो जाती है तब से नए पोषक की तलाश में निकल पड़ते हैं। इस प्राकार वायरस एक परपोषी जीव होते हैं और अपने जीवन के लिए जीवित प्राणियों पर ही पनपते हैं।
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8. व्हेल को मछली क्यों नहीं माना जाता?
व्हेल एक समुद्री जीव है, जो पानी में रहता है। इसका आकार मछली जैसा होता है, लेकिन वास्तविकता में यह मछली की श्रेणी में नहीं आते। यह एक स्तनधारी प्राणी है।
इस का विकास विशाल्काए जंतु डायनासोर से माना जाता है, जो आज से करोड़ों साल पहले धरती पर विचरण किया करते थे। नीली व्हेल या सल्फर बॉटम व्हेल सबसे विशाल्काए जीव है। व्हेल हमारी तरह सांस लेता है और इसके गलफड़े नहीं होते हैं।
इसके सिर्र के अगले भाग में नथुने होते हैं और पानी के अन्दर यह नथुने बंद हो जाते हैं। यह सांस लेने के लिए हर 5-10 मिनट बिना सांस लिए रह सकता है। मादा व्हेल बच्चे पैदा करती है और उन्हें दूध पिलाती है। व्हेल गर्म रक्त वाला प्राणी है। इसके शरीर के अंग स्तनधारियों से मिलते हैं।
कुछ व्हेल दांत वाले भी होते हैं और कुछ के मुंह में दांतों के स्थान पर प्लेट के आकार की हड्डियां होती हैं। इन्हीं सब गुणों के आधार पर व्हेल को मछली न मान कर स्तनधारी प्राणी मन जाता है।
9. जोर से आवाज़ देते वक़्त मुंह के चारों ओर घेरा क्यों बन जाता है?
गले में स्वर रज्जु के कम्पन्न के कारण मुंह से ध्वनि तरंगें निकलती हैं। ध्वनि तरंगें हवा में चारों ओर फ़ैल कर दुसरे व्यक्ति के कानों तक पहुंचती हैं,
लेकिन जब ध्वनि तरंगों को हवा में अधिक दूरी तय करनी पड़ती है तो उन की ऊर्जा कम हो जाती है। इससे ध्वनि की तीव्रता भी कम हो जाती है, लेकिन जब हम मुंह के पास घेरा बना लेते हैं तब ध्वनि तरंगें मुंह से निकलते ही हवा में चारों ओर नहीं फैलती हैं और इन की ऊर्जा में अधिक कमी आ जाती है।
10. ब्रेड या टोस्ट की आवाज़ सिर्फ हमें क्यों सुनाई देती है?
नाश्ते के रूप में सर्वाधिक प्रयोग की जाने वाली ब्रेड या टोस्ट को खाते समय एक शोर सुनाई देता है। इससे हमें ऐसा एहसास होता है जैसे यह आसपास बैठे सभी लोग सुन रहे होंगे। वास्तव में ऐसा कुछ नहीं होता- कुछ सूखा या क्रिस्पी (कुरकुरी) चीज़ खाने पर होने वाली आवाज़ सिर्फ हमें ही सुनाई देती है दूसरों को नहीं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हवा के माध्यम से कान तक पहुँचने वाली ध्वनि हलके शोर के समान लगती है वही ध्वनि जब दांतों के द्वारा खोपड़ी के ठोस रेशों से होकर हमारी सुनने वाली संवेदनाओं की वाहक सिरों तक पहुंचती है तो यह तेज़ शोर में बदल जाती है। यह शोर सिर्फ हमारे कानो में ही होता है आसपास बैठे लोगों को परेशान नहीं करता।
11. कुछ व्यक्ति बोने क्यों रह जाते हैं?
कई बार हमारे आस-पास कुछ लोगों का कद बहुत छोटा होता है, वे सभी से अलग दिखाई देते हैं। दरअसल मनुष्य के शरीर की लम्बाई कई बातों पर निर्भर करती है।
सामान्य रूप से मनुष्य की लम्बाई वंशानुगत होती है। जिस व्यक्ति के माता पिता नाटे होते हैं उनके बच्चों का कद भी अधिक नहीं बढ़ता।
इसके अतिरिक्त नाटे होने का एक और कारण pituitary glands से hormones के secretion की कमी भी होती है। कुछ लोग बच्चपन में बहुत जल्दी बढ़ते हैं लेकिन आगे चलकर hormones के कम secretion से उनका कद बढ़ना रुक जाता है।
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12. बैठना आरामदायक क्यों होता है?
आपने अक्सर महसूस किया होगा कि खड़े रहने के बजाय बैठना आसान होता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि गुरुत्वाकर्षण के कारण हमारे शरीर अपर नीचे का दबाव पड़ रहा होता है
तब यह दबाव पैरों से होता हुआ हमारी एड़ी और पंजों पर पड़ता है। एक ही स्थान पर पूरे शरीर का भार पड़ने के कारण हमें पैरों में दर्द और थकान का आभास होने लगता है।
बैठने पर यह दबाव और भार बंट जाता है जिससे शरीर के किसी हिस्से पर दबाव नहीं पड़ता और पेशियों को भी कम काम करना पड़ता है। यही कारण है कि लम्बे समय तक खड़े रहने की अपेक्षा किसी स्थान पर बैठना अधिक आरामदायक होता है।
13. फ्यूज का प्रयोग क्यों जाता है?
कई बार बिजली के अनियंत्रित वोल्टेज के चलते फ्यूज तार टूट जाते है। दरअसल फ्यूज का प्रयोग मीटर में सुरक्षा की दृष्टि से किया जाता है। सुरक्षा फ्यूज का तार ऐसे पदार्थ से बना होता है,
जिस का गलनांक (गलनांक- किसी पदार्थ का वह निश्चित ताप, जिस पर वह गलने लगता है) कम होता है। बिजली के सर्किट में इसे सुरक्षा के उपकरण के रूप में लगाया जाता है, ताकि सर्किट में अतिरिक्त करंट न जा पाए।
जब करंट निर्धारित सीमा से आगे बड़ जाता है,तो फ्यूज तार गर्म होकर पिघल जाता है और circuit टूट जाता है। इससे बिजली से होने वाला खतरा टल जाता है।
14. बधिर यंत्र कैसे काम करता है?
श्रवण सहायक यंत्र उन लोगों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है जो बहरे होते हैं या कम सुनते हैं। ऐसे अधिकतर यंत्र इलेक्ट्रॉनिक उपकरण होते हैं और ट्रांजिस्टर की सहायता से काम करते हैं।
इन यंत्रों में कुछ ध्वनि को और ऊंचा कर देते हैं और कुछ ध्वनियों को सीधा कान तक पहुंचा देते हैं, ताकी आवाज़ अच्छी तरह सुनाई दे। श्रवण यन्त्र ध्वनियों को कान के पीछे स्थित एक विशेष हड्डी तक पहुंचा देता है।
यह हड्डी आवाज़ को कान के भीतरी भाग तक भेजता है। यहाँ श्रवण स्नायु के सिरों की सहायता से सुनी जाती है।
15. इत्र कैसे बनाते है?
पुराने समय में फूलों के रस से बना इत्र का प्रयोग सिर्फ राजा महाराजा करते थे। आज इसका उपयोग काफी आम हो गया है और इसे बनाने के तरीके में भी बदलाव आया है।
पहले फूलों का तेल, कुछ ख़ास प्राकर्तिक पदार्थों से बनी खुशबू को निश्चित अनुपात में मिलाकर इत्र तैयार किया जाता था। यह प्रक्रिया आज भी इत्र बनाने में शामिल है।
हर एक इत्र का अलग सूत्र होता है। इसे बनाने के लिए खुशबूदार फूलों को पानी में उबाला जाता है, इससे निकलने वाली भाप को ठंडा करके दुसरे बर्तन में एकत्र कर लेते हैं।
इससे फूलों में मौजूद तेल भी भाप के साथ बर्तन में एकत्र हो जाता है और पानी के ऊपर तैरने लगता है। इस तेल को पानी से अलग कर इत्र निर्माण में प्रयोग किया जाता है।
बताते चलें की हिरन, ऊदबिलाव जैसे कुछ जानवर भी सुगंधित पदार्थ बनाते हैं। इनसे प्राप्त पदार्थ का प्रयोग भी इत्र बनाने में किया जाता है।
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16. अमरबेल क्या है?
हालाँकि अमरबेल एक तरह की बेल है जो बड़े पेड़- बेर, कीकर, बबूल आदि पर लिपटी रहती है। यह बेल इतनी प्रभावी होती है कि जिस पेड़ पर यह होती है, कुछ ही दिनों में उस पर पनप जाती है और होस्ट प्लांट को सुखा देती है।
यह एकशाकीय परजीवी होती है,जिसमे पत्तियों और पर्ण हरिम के आभाव में इनका रंग पीला सुनहरा या हल्का लाल होता है। इस विनाशकारी बेल की जड़ नहीं होती बल्कि इसका बीज नमी पाकर अंकुरित हो जाता है और आसपास के किसी भी पौधे पर आश्रित होकर पनपने लगता है।
इस एल में उपस्थित चूसने वाला तत्व पेड़ की नमी व अन्य तत्वों को चूस लेती है, जिससे पेड़ तो मर जाता है, लेकिन यह पनपती रहती है।
अगर इस बेल को कोई पेड़ न मिले तो यह पलट कट अपनी ही पुरानी शाखाओं से लिपट जाती है और उनके साथ भी ऐसा ही करती है। आसानी से नष्ट न होने के कारण इस बेल को अमरबेल कहते हैं।
17. पेड़ पौधे अपना भोजन कैसे बनाते है?
जैसे हमें जीवित रहने के लिए भोजन की आवश्यकता होती है वैसे ही वनस्पति को जीवित रहने के लिए भी भोजन की आवशयकता होती है। हमारे पास भोजन के कई साधन हैं लेकिन पेड़-पौधे अपना भोजन ज़मीन और हवा से प्राप्त करते हैं।
वास्तव में पौधों की जड़ के सिरे रेशों की तरह होते हैं। इन्हें रूट हेयर कहते हैं। ये रेशे ज़मीन से पानी और घुले खनिज पदार्थों को अवशोषित कर के तने और टहनियों के रास्ते पत्तियों तक पहुंचा देते हैं।
पानी के बाद भोजन बनाने का कार्य पत्तियां करती हैं। पत्तियों में हरे रंग के सूक्ष्म क्लोरोफिल मौजूद होता है जिन्हें पेड़ का ट्रांसफार्मर भी कहते हैं। ये मशीन के रूप में कार्य करते हुए सूर्य के प्रकाश से ऊर्जा लेकर पानी की हाइड्रोजन और कार्बन-डाई-ऑक्साइड के कार्बन को शर्करा में बदल देता है।
इस क्रिया के फलस्वरूप ऑक्सीजन और पानी भी बनता है जिन्हें पत्तियां बाहर निकाल देती हैं। शर्करा स्टार्च में बदल कर पेड़ों में एकत्रित होती रहती है। खनिज पदार्थ रासायनिक क्रिया द्वारा प्रोटीन तेल या दूसरें खाद्य पदार्थों में बदल जाते हैं। इन पदार्थों को पेड़ भोजन के रूप में अपनी वृद्धी के लिए प्रयोग करते हैं। यही भोजन पेड़ के सभी भागों में चला जाता है।
18. लेजर लाइट क्या हैं?
लेजर (विकिरण के उद्दीप्त उत्सर्जन द्वारा प्रकाश प्रवर्धन) (अंग्रेजी:लाइट एमप्लीफिकेशन बाई स्टीमुलेटेड एमिशन ऑफ रेडिएशन) का संक्षिप्त नाम है।प्रत्यक्ष वर्णक्रम की विद्युत चुम्बकीय तरंग, यानी प्रकाश उत्तेजित उत्सर्जन की प्रक्रिया द्वारा संवर्धित कर एक सीधी रेखा की किरण में बदल कर उत्सर्जित करने का तरीका होता है।
इस प्रकार निकली प्रकाश किरण को भी लेज़र किरण ही कहा जाता है। ये किरण प्रायः आकाशीय रूप से कोहेरेंट (सरल रैखिक व एक स्रोतीय), संकरी अविचलित होती है, जिसे किसी लेंस द्वारा परिवर्तित भी किया जा सकता है। ये किरणें संकरी वेवलेंथ,विद्युत चुम्बकीय वर्णक्रम की एकवर्णीय प्रकाश किरणें होती है।
हालांकि बहुवर्णीय प्रकाश धारिणी लेज़र किरणें या बहु वेवलेंथ लेज़र भी निर्मित की जाती हैं। एक पदार्थ (सामान्यतः: एक गैस और क्रिस्टल) को ऊर्जा, जैसे प्रकाश या विद्युत से टकराने के बाद वह अणु के विद्युत चुम्बकीय विकिरण (एक्सरे, पराबैंगनी किरणें) उत्सर्जित करने के लिए उत्तेजित करता है जिसके बाद में संवर्धित किया जाता है और एक किरण के रूप में इसे छोड़ा जाता है।
लेजर एक ऐसी तकनीक के रूप में विकसित हुई है जिसके सहारे आज आधुनिक जगत के अनेक कार्य सिद्ध होते हैं। लेज़र का आविष्कार लगभग ५० वर्ष पहले हुआ था। आधुनिक जगत में लेजर का प्रयोग हर जगह मिलता है – वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं, सुपर मार्केट और शॉपिंग मॉल्स से लेकर अस्पतालों तक में भी।
मनोरंजन के संसार में डीवीडी के प्रकार्य में लेज़र ही सहायक होता है, सुरक्षा और सैन्य क्षेत्र में वायुयानों को गाइड करने में, तोप और बंदूकों को लक्ष्य लॉक करने में, आयुर्विज्ञान के क्षेत्र में दंत चिकित्सा और लेज़र से आंख के व अन्य शारीरिक ऑपरेशन, कार्यालयों के कार्य में लेज़र प्रिंटर द्वारा डॉक्यूमेंट प्रिंटिंग, संचा क्षेत्र में ऑप्टिकल फाइबर केबलों तक में लेजर ही चलती है |
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19. रात में जुगनू क्यों चमकता है?
रात अंधेरी हो तो जुगनू का बारी-बारी से चमकना और बंद होना रोमांचक और मनोहारी होता है। जुगनू लगातार नहीं चमकते, बल्कि एक निश्चित अंतराल में ही चमकते और बंद होते हैं।
वैज्ञानिक रॉबर्ट बॉयल ने सन 1667 में सबसे पहले कीटों से पैदा होने वाली रोशनी की खोज की। जुगनुओं की कुछ प्रजातियों में काफी रोशनी पैदा करती हैं। ऐसी किस्में दक्षिण अमेरिका और वेस्टइंडीज में पायी जाती हैं।
गौरतलब है कि रोशनी पैदा करने वाले कीटों की करीब एक हजार प्रजातियां खोजी जा चुकी हैं जिनमें कुछ बैक्टीरिया, कुछ मछलियां-कुछ किस्म के शैवाल, घोंघे और केकड़ों में भी रोशनी पैदा करने का गुण होता है, लेकिन इनमें जुगनू सबसे ज्यादा लोकप्रिय है। जुगनू रात्रिचर होते हैं।
हमारे यहां पर पाया जाने वाला जुगनू कोई आधे इंच का होता है। वह पतला और चपटा-सा स्लेटी भूरे रंग का होता है। नर जुगनू में ही पंख होते हैं मादा पंख न होने के कारण उड़ने में असमर्थ होती है। वह उड़ते हुए साथी को रोशनी के चमकने और बुझने की लय की मदद से पहचानती है।
मादा चमकती तो है लेकिन किसी स्थान पर बैठी होती है। जुगनू की आंखें बड़ी स्पर्शक लंबे और टांगे छोटी होती हैं। जुगनू जमीन के अंदर या पेड़ की छाल में अंडे देती हैं। इनका मुख्य भोजन छोटे कीट और वनस्पति हैं।
जुगनू के शरीर में नीचे की ओर पेट में चमड़ी के ठीक नीचे कुछ हिस्सों में रोशनी पैदा करने वाले अंग होते हैं। इन अंगों में कुछ रसायन होता है। यह रसायन ऑक्सीजन के संपर्क में आकर रोशनी पैदा करता है। रोशनी तभी पैदा होगी जब इन दोनों पदार्थों और ऑक्सीजन का संपर्क हो। लेकिन, एक ओर रसायन होता है जो इस रोशनी पैदा करने की क्रिया को उकसाता है।
यह पदार्थ खुद क्रिया में भाग नहीं लेता है। यानी रोशनी पैदा करने में तीन पदार्थ होते हैं। इन बातों को याद रख सकते हैं कि इनमें से एक पदार्थ होता है जो उत्प्रेरक का काम करता है |
ऑक्सीजन और रोशनी पैदा करने वाले पदार्थ की क्रिया में उस तीसरे पदार्थ की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण होती है | जब ऑक्सीजन और रोशनी पैदा करने वाले पदार्थ की क्रिया होती है तो रोशनी पैदा होती है |
20. रेगिस्तान क्या है?
रेगिस्तान का अर्थ ऐसी दृश्यावली प्रस्तुत करता है जहां रेत के आधारहीन गुबार एक ओर से दूसरी ओर उड़ते व लुढ़कते रहते हैं और जहां का वातावरण शुष्क होता है और भीषण गर्मी होती है। उपयुक्त स्थितियां अनेक स्थानों पर हो सकती हैं किंतु संसार के रेगिस्तानों में विभिन्नता होती है
जैसे कि रेगिस्तान में कहीं ऊंची समतल भूमि पर चट्टानों के दृश्य तो कहीं पर नमक की झीलों की भरमार है।“विज्ञान प्रसार वैसे तो रेगिस्तान से हम सभी परिचित हैं किंतु वैज्ञानिक रूप से इसे परिभाषित करना आसान नहीं है।
इसका कारण यह है कि वैज्ञानिकों ने भी इसकी अनेक परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं। रेगिस्तान शब्द स्थलाकृति की विभिन्न विविधताओं को समेटे हुए है। यहां हम पर्यावरण की विभिन्न स्थितियों को देख सकते हैं।
खगोलशास्त्र में रेगिस्तान को ऐसी स्थलाकृति के रूप में परिभाषित किया गया है जहां वर्षा (बौछार, हिम, बर्फ आदि रूपों में) बहुत कम लगभग 250 मि।मी। होती हो। एक मान्य परिभाषा के अनुसार रेगिस्तान एक बंजर, शुष्क क्षेत्र है जहां वनस्पति नहीं के बराबर होती है,
यहां केवल वही पौधे पनप सकते हैं जिनमें जल संचय करने की अथवा धरती के बहुत नीचे से जल प्राप्त करने की अद्भुत क्षमता हो। मिट्टी की पतली चादर जो वायु के तीव्र वेग से पलटती रहती है और जिसमें कि खाद-मिट्टी (ह्यूमस) का अभाव हो, वह उपजाऊ नहीं होती। इन क्षेत्रों में वाष्पीकरण की क्रिया से वाष्पित जल, वर्षा से प्राप्त कुल जल से अधिक हो जाता है,
तथा यहां वर्षा बहुत कम और कहीं-कहीं ही हो पाती है। अंटार्कटिका क्षेत्र को छोड़कर अन्य स्थानों पर सूखे की अवधि एक साल या अधिक भी हो सकती है। इस क्षेत्र में बेहद शुष्क व गर्म स्थिति किसी भी पैदावार के लिए उपयुक्त नहीं होती है।
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